कश्तियाँ बचपन की है मझधार में.....

सोनू दरभंगा बिहार से अपने गाँव के ठेकेदार के साथ दिल्ली आया था । पांच भाई बहनों में सबसे बड़ा था लेकिन उम्र यही 14 वर्ष के करीब थी । बाप की मौत तो टीबी की बीमारी से हो गई । माँ के हाथ में कुछ काम नहीं था । दो भाई व दो बहनों का भार भी उसके कन्धों पर आ गया । स्कूल छोड़कर घर का मुखिया  बन गया । मुखिया  का बोझ उठाकर गाँव से दिल्ली की तंग गलियों में  आ गया । बालश्रम के लिए कुख्यात दिल्ली के नबी करीम इलाके में बैग बनाने वाले कारखाने में काम करने लग गया । उसको यहाँ आये डेढ़ साल के करीब हो गए । रोज सुबह  8 बजे से रात 10 बजे तक काम करता । प्रत्येक बैग में चेन-जिप लगाने पर 3 रूपये मिलते । रोज दो सौ से लेकर तीन सौ रुपये कमा लेता था । सपना एक ही था घर को पालना । कमाई के हर नोट पर माँ की लाचारी व भाई-बहनों की उदासी ख़ामोशी के साथ अंकित करके जेब में रख लेता । हर बैग को तैयार करके जब वह साइड में रखता तो थोड़ी देर तक उसी को घूरकर देखता रहता । फिर एकदम झिझकर अगले बैग को तैयार करने में लग जाता । शायद उसको अपना स्कूल बैग याद आ जाता होगा और फिर अपने कंधों पर आये मुखिया  के भार को याद करके अगले बैग को तैयार करने में लग जाता होगा क्योंकि हर बैग किसी न किसी सदस्य के सपनों की बुनियाद के लिए कीमत देता था |

परसों से सोनू मुरझाया-मुरझाया सा लग रहा था ।जिंदगी की ठोकर ने शायद उनको दर्द छिपाने की कला सीखा दी थी, इसलिए चुपचाप काम में लग गया । लेकिन कच्ची कलियां बिना पोषण के कब तक धूप  से अपना दामन बचाये रखेगी । दोपहर होते-होते बेहोश हो गया । साथी दो बच्चे उठाकर नजदीकी अस्पताल में ले गए । ठेकेदार ने 200 रूपए देकर भेज दिया था । आपातकालीन विभाग में जैसे ही डॉक्टर ने बच्चे को देखा तो इलाज तो शुरू कर दिया लेकिन लाने वाले बच्चों को इस तरह डांटा कि शायद इसकी गंभीर हालत के अपराधी यही है । एक बच्चा सोनू का चचेरा भाई था । उसके होंठ कांपने लगे व आँखों से अश्रुधाराएँ दोनों गालों से बहने लगी । अस्पताल वाले सोनू को बचाने की भरपूर कोशिश कर रहे थे लेकिन उसकी हालत अब उस स्तर पर पहुँच गई कि उसका बचना असंभव सा लग रहा था । डॉक्टर ने बोला माँ-बाप कहाँ है उनको बुलाओ मुझे बात करनी है । उसके चचेरे भाई ने बोला मैडम कोई नहीं है इसका यहाँ जो कुछ भी हूँ ,  मैं ही हूँ। डॉक्टर झेंपते हुए-तो सुनलो,अब सोनू का बचना मुमकिन नहीं है हम जो कुछ कर सकते थे कर लिया । डॉक्टर यह बता रही थी उधर सोनू ने अंतिम सांस ले ली । अंतिम कोशिश की गई लेकिन नहीं बच पाया । मृत्यु प्रमाणपत्र जब मृत सोनू के चचेरे भाई को हाथ में दिया जा रहा था तो ऐसा लग रहा था कि देने वाला सरकारी अपराधों की सूची सौंप रहा है । जब दोनों बच्चे मृत सोनू की लाश को उठाकर ले गये तो ऐसा लगा जैसे बच्चे लोकतंत्र का जनाजा ही उठाकर ले गए ।

घर पर चार बच्चे और माँ,  मुझे नहीं पता कि उसकी लाश को गाँव ले जाया गया या दिल्ली में ही अंतिम संस्कार किया लेकिन घर पर सूचना पहुंची होगी तो क्या दृश्य रहा होगा आप खुद कल्पना कर सकते हो । मैं इस अधूरी घटना को जानकर ही खुद को अपराधी मान बैठा हूँ । मैं भी अब तक के सफर में अपनी तरफ से 100% कोशिश इस तरफ करने में नाकाम रहा हूँ । कवि डॉ हरिओम पंवार अकेले 600 बच्चों का पढ़ाने-लिखाने सहित पूरा खर्चा उठा रहे है । क्या इस देश के अमीर लोग इस तरह की जिम्मेवारी नहीं उठा सकते ? मैं नहीं मानता कि हमारे पास संसाधनों की कमी है ! कमी हमारी नियत में है । हम हमारे अंदर के इंसान की हत्या कर चुके है । हमारे अंदर धर्म की अस्थियों की भष्म भर चुकी है । हम मंदिर में अपने हाथों से बनाई मूर्तियों पर करोड़ों खर्च कर देते है, लेकिन जिस मूर्ति को खुद भगवान ने बनाया उसको दो रोटी नहीं देते । हम मस्जिद-चर्च में करोड़ों देंगे लेकिन जिसे अल्लाह ने बनाया या प्रभु यीशु ने बनाया उसको इस तरह मरते हुए देखने पर भी शर्मिंदगी महसूस नहीं करते ।  धर्म को सब मानते है लेकिन धर्म की कोई नहीं मानता । लोकतंत्र की रक्षा की शपथ खाने वाले लोग ही संसद को मुफ्तखोरी में खाने का लंगर बनाकर बैठ गए । जिनके कन्धों पर देश को बदलने का भार सौंपा था, उन्होंने ही इन गरीब बच्चों के कंधों पर लाशें डालनी शुरू की है । इस देश में हर कुर्सी किसी न किसी की लाश पर टिकी हुई है । जब तक कुर्सियों की सफाई नहीं होती तब तक यह बोझ ढोते रहना पड़ेगा । सोनू के बाद कई सोनू-मोनू गुजर चुके है, लेकिन मोटी चमड़ी वाले लकड़बग्गों पर कुछ फर्क नहीं पड़ता । किसी की मौत पर कुछ हंगामा होता है तो कानून अपना काम करेगा कहकर ढक्कन लगा दिया जाता है ।
आप भी इस तरफ जरूर सोचिये ।किसी एक गरीब बच्चे को दलदल से निकालकर रोजगार की दहलीज पर खड़ा कर दोगे तो किसी धर्म के जाल में फंसे बिना जीवन सफल हो जायेगा…..।

कोई आवाज दे दो अपनी जुबानों से,
कश्तियाँ बचपन की फंसी है मझधार में ।
जिन हाथों को खेलना था खिलौनों से,
वो हाथ ही इन्हें बेच रहे है भरे बाजार में…….।
(नोट-सच्ची घटना पर आधारित है।क़ानूनी पहलुओं को ध्यान में रखते हुए नाम परिवर्तित किये गए है)

                      नवभारत टाइम्स 

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